आज से १५-२० वर्ष पूर्व इन्हीं सरकारी विद्यालयों से पढ़कर अच्छे सुयोग्य अध्यापक-प्राध्यापक,चिकित्सक, अधिकारी, अभियन्ता, राजनेता, वैज्ञानिक तथा विभिन्न विभागों में सरकारी कर्मचारी बने जिन्होंने अपनी पूर्ण निष्ठा एवं योग्यता के साथ इस देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और तत्कालीन समय में शिक्षा के नाम पर विरूपता एवम् असमानता का भाव भी समाज में नहीं दिखाई देता था लेकिन जैसे-जैसे इक्कीसवीं सदी में हमारा देश बढ़ने लगा इसी शिक्षा व्यवस्था तथा वर्तमान के विकृतमय आधुनिक माहौल में हमारे भारत का समाज दो व्यवस्थाओं में विभाजित हो गया जिसमें हमारे नीति निर्माताओं तथा नीति क्रियान्वयन करने वाले शैक्षिक जगत से जुड़े हुए सुधीजनों के कारण निम्न दो रूप दिखाई दे रहे हैं जो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है –
१- धनिकों की शिक्षा
२-निर्धनों की शिक्षा
शिक्षा एवं चिकित्सा मानव की मूलभूत आवश्यकताओं में से प्रमुख हैं और भारतीय संविधान के तहत भारत के प्रत्येक नागरिक को समुचित शिक्षा-चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध कराना सरकारों की पूर्ण जिम्मेदारी होती है यदि शिक्षा एवं चिकित्सा का ही हमारे देश में पूर्ण निजीकरण हो जायेगा तो भविष्य में सरकारों के पास कार्य क्या रहेगा,शासन- प्रशासन क्या रहेगा यह बेहद चिन्तनीय है साथ ही कल्पना करिए कि यदि यह निजीकरण बढ़ते गया तो हमारे देश में आज भी ७० प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी से नीचे स्तर का जीवन यापन करते हैं उनके बच्चों के लिए गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा एवं सर्वसुलभ शिक्षा कहां से प्राप्त होगी ? और आप जनमानस के प्रति निजी शिक्षा के जुड़े हुए मठाधीशों का क्या दृष्टिकोण होगा इसके विषय में समय रहते हुए सोचना होगा!
आज तो यह स्थिति है जब कोई निर्धन परिवार का अभिभावक अपने पाल्य को किसी निजी विद्यालय में प्रवेश कराता है और उसको शुल्क वहन करने में दिक्कत होती है तो वह निजी विद्यालय से नाम कटाकर अपने पाल्य का किसी सरकारी विद्यालय में प्रवेश करा लेता है जहां उसको अनुभवी एवं योग्य प्रशिक्षित अध्यापकों से पढ़ने का अवसर प्राप्त हो जाता है लेकिन भविष्य में ऐसे ही सरकारी विद्यालय बन्द होते रहे और सरकारी शिक्षा का निजीकरण बढ़ते गया उस स्थिति में तो सरकारी विद्यालय ही नहीं बचेंगे फिर निजी संस्थाओं में किस प्रकार की तानाशाही बढ़ जायेगी और गरीब व्यक्ति का कैसा शोषण होगा इसके विषय में अभी से सोचना पड़ेगा तभी कुछ समाधान होगा अन्यथा की स्थिति में हमारे देश के आम आदमी का उस समय शोषण के अलावा कुछ नहीं होगा।
मंचों से विभिन्न जयघोषों, चुनावी घोषणापत्रों तथा वर्तमान में राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं से प्रवर्तित हो रही नीतियों से यही अनुभव होता है कि समाज में बढ़ रही आर्थिक असमानता, शिक्षा एवं चिकित्सा के निजीकरण का बढ़ता प्रभाव हमारे देश के लिए शुभ संकेतक नहीं है चाहे अपनी पीठ अपनी रोज ही क्यों न थप थपालें।