आज के इस दौर में जहां पर पश्चिमी संस्कृति हमारे देश में हावी हो चुकी है, अब ये कुसंस्कृति हमारे दूर अंचलों में बसे गांवो की बाखलियो में प्रभाव डाल रही हैं, हमारे लोकगीतों और लोकनृत्यों में भी जो ठुमका लग रहा है वह भी फुहरता का है। पर्वतीय संस्कृति की बारीकियों को समझने वाले वयोवृद्ध अब किसी भी कामकाज पर जाने से कतराने लगे हैं। उनका कहना है की आज की पीढ़ी सयाने लोगो से कोई भी राय लेना नही चाहती, उनकी सोच उनकी उमर से काफी आगे जा चुकी है।
अपनी कर्मभूमि और जन्मभूमि से जुड़े रहने के कारण दूर शहरों में उनका मन नहीं लगता, और ग्रामीण अंचलों में उनकी आत्मा तो बसी है लेकिन कोई भूमिका नहीं रह गई है। (एक छोटा सा लोककलाकार/ लोकगायक होने के कारण ) मेरा बहुत गांवो के सयाने (८० से ९० वर्ष ) लोगो/ महिलाओं से नज़दीकियां होने के कारण उनके *मन की बात* जानने का मौका मिलता रहता है, उनका कहना होता है, कि हमारे लोकगीतों का वो लहजा और लोकनृत्यों का वो ठस्का नही रह गया है। आजकल के लोकगीतों को तोड़ मरोड़ कर बनाया जा रहा है। ठेठ पहाड़ी भाषा के शब्दकोश से आखर व गहराई गायब हो गए है। हमारे भगनौल (बैर) गायक अनपढ़ होने के कारण भी कोई १६ पास व्यक्ति उनका जवाब नहीं दे पाता था, क्यू…….?
क्यूंकि उनके प्रश्नो और उनके जवाबो मे पहाड़ी भाषा साहित्य का तानाबाना बुना हुआ था। वो लोकविधा हस्तांतरित न होने से लुप्त हो चुकी हैं या कगार पे है। युवा पीढ़ी उस विधा को सीख ही नहीं पाई और न उसे सीखना चाहती हैं। इसी कारण से आज लोक गीतों को तोड़ मरोड़ करने की जरूरत आन पड़ी है।